बी ए - एम ए >> बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 मनोविज्ञान बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 मनोविज्ञानसरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 मनोविज्ञान - सरल प्रश्नोत्तर
प्रश्न- नैतिक विकास को प्रभावित करने वाले विभिन्न कारक कौन-से हैं? विस्तार पूर्वक समझाइये?
सम्बन्धित लघु उत्तरीय प्रश्न
1. नैतिक विकास पद विद्यालय का प्रभाव।
उत्तर -
(Factors Influencing Moral Development)
जैसा कि हम पूर्व में पढ़ चुके हैं नैतिक विकास रातों-रात नहीं होता है वरन् उसे सीखना पड़ता है। इसके विकास में कई वातावरणीय कारकों का भी अति महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है। तो आइये जानें कि नैतिक विकास को प्रभावित करने वाले प्रमुख कारक कौन-कौन से हैं? यहाँ नैतिक विकास को प्रभावित करने वाले कारकों का संक्षिप्त विवरण दिया जा रहा है-
(1) बुद्धि (Intelligence ) - बालकों के नैतिक विकास को प्रभावित करने वाला एक अति महत्वपूर्ण कारक है "बुद्धि" । बुद्धि में वह शक्ति होती है, वह सामर्थ्य होता है जो उचित-अनुचित, अच्छा-बुरा, सत्य-झूठ के बीच अंतर करना सिखाता है। बौद्धिक क्षमता के आधार पर बालक उचित - अनुचित के बीच भेद करना सीख जाता है। वह नैतिक मूल्यों को समझता है और उसे अपने जीवन में अपनाता है। कुशाग्र बुद्धि के बालक नैतिक मूल्यों एवं आचरणों को अपने जीवन में शीघ्रता से अपना लेता है। वहीं मंद बुद्धि के बालकों को नैतिक मूल्यों को सिखाने में अधिक सयम लगता है। साथ ही यदि उनमें, एक बार अवांछनीय आचरणों का विकास हो जाता है तो वह उसका परित्याग आसानी से नहीं कर पाता है। इसके ठीक विपरीत सामान्य बुद्धि व कुशाग्र बुद्धि के बालक अवांछनीय आदतों का परित्याग आसानी से कर देते हैं। अध्ययनों से यह ज्ञात हुआ है कि प्रतिभाशाली बालकों का व्यवहार मंदबुद्धि वाले बालकों की तुलना में अधिक सुखद, सुन्दर व आनंददायी होता है। वे सामाजिक मान्यताओं को ध्यान में रखते हुए सुन्दर आचरण करते हैं। कुशाग्र बुद्धि के बालक अपने आदर्श मार्ग से बहुत ही कम विचलित होते हैं।
(2) आयु (Age) - बुद्धि की भाँति ही " आयु" (Age) का भी नैतिक विकास में अहम् योगदान है। छोटे बच्चे नैतिक-अनैतिक में भेद नहीं कर पाते हैं। इसका प्रमुख कारण उनकी बौद्धिक क्षमता का अल्प विकास होना है। उनकी मस्तिष्क की कोशिकाएँ व तंत्रिका तंत्र इतना परिपक्व नहीं होता है कि वे नैतिक मूल्यों को समझ सकें और उन्हें याद कर सकें। इस अवस्था के बालक वहीं कार्य करते हैं, जिनसे उन्हें असीम आनंद की प्राप्ति होती है। इसका दूसरा मुख्य कारण नैतिक विकास का शनैः शनैः विकास होना भी है। आयु बढ़ने के साथ-साथ बालकों के सोचने-समझने, तर्क करने, विचार करने की क्षमता में वृद्धि होती है और वे उचित-अनुचित, सही-गलत, झूठ-सच आदि के बारे में समझने लग जाते हैं। सहयोग, सहनशीलता, ईमानदारी, कर्त्तव्यनिष्ठा, मित्रता, सहिष्णुता, परोपकार की भावना आदि का विकास उम्र बढ़ने के साथ-साथ ही होता है।
छोटे बालक जब विद्यालय में पढ़ाये गये पाठों को याद नहीं कर पाते हैं अथवा Home work पूरा नहीं कर पाते हैं तो वे शिक्षक की डाँट फटकार से बचने के लिए तुरंत ही झूठ बोल देते परन्तु वही बालक बड़े होने पर झूठ कम ही बोलते हैं। अब वे उन्हीं जगहों पर झूठ बोलते हैं जहाँ ऐसा महसूस होता है कि 'झूठ बोलना जरूरी है।'
(3) लिंग (Sex) - नैतिकता के विकास में 'लिंग' (Sex) का भी अति महत्वपूर्ण स्थान है। यद्यपि जन्म के समय लड़के-लड़की की नैतिकता में कोई अंतर नहीं होता है। दोनों ही नैतिक मूल्यों से अनभिज्ञ होते हैं। परन्तु जैसे-जैसे वे बड़े होते जाते हैं, उनके माता-पिता एवं शिक्षक उन्हें नैतिक मूल्यों एवं आचरणों के बारे में बताते हैं। लड़कियाँ जन्म से ही अधिक शर्मीली एवं लज्जाशील प्रकृति की होती हैं। इस कारण उनमें नैतिक मूल्यों का विकास लड़कों की तुलना में अधिक होता है। इसका प्रमुख कारण अंत: स्रावी ग्रंथियाँ (Endocrine glands) तथा उनसे स्रावित होने वाले हारमोनों की भिन्नता है। एन्ड्रोजन (Androgen) हारमोन लड़कों में उपस्थित होता है जो लड़कियों में नहीं पाया जाता है। शायद इसी हारमोन के कारण लड़के-लड़कियों की तुलना में अधिक चंचल, उद्दंड, उच्छृंखल एवं दुराचारी होते हैं।
(4) परिवार (Family) - बालकों के नैतिक विकास को प्रभावित करने वाले कारणों में से एक अति महत्वपूर्ण कारक है 'परिवार' । परिवार में ही पल - बढ़कर शिक्षा-दीक्षा पाकर बालक नैतिक आचरणों को सीखता है। बालक अपने माता-पिता तथा परिवार के सदस्यों के व्यवहार एवं आचरणों का ही अनुकरण करते हैं। उनके माता-पिता जिस तरह का व्यवहार करते हैं बालक भी उन्हीं की तरह व्यवहार करता है। उनका बोलचाल का ढंग भी माता-पिता से काफी हद तक मिलता-जुलता है। यदि घर में माता-पिता एवं परिवार के सदस्यों का व्यवहार अच्छा है, वे नैतिक आचरणों से सुशोभित हैं । उचित - अनुचित में भेद करना जानते हैं, तो निश्चित ही बालकों में भी इन्हीं गुणों का विकास होगा। क्योंकि नैतिक गुणों से विभूषित माता-पिता अपने बालकों को सच बोलने की शिक्षा देते हैं।
फलतः बालक में बाल्यावस्था से ही नैतिक मूल्यों का विकास होता है। इसके ठीक विपरीत यदि माता-पिता एवं परिवार के सदस्य ही झूठ बोलते हैं, चोरी करते हैं, दूसरों को परेशान करते हैं, शराबी, जुआरी, बेश्यागामी, गंजेड़ी (गांजा पीने वाला), भंगेड़ी ( भांग खाने वाला) हैं, चरस एवं नारकोटिक्स का सेवन करते हैं, तो निश्चित ही बालक में उन्हीं अवगुणों का ही समावेश होगा। ऐसे परिवार में पले-बढ़े बालकों में झूठ बोलने की बहुत अधिक आदत पायी जाती है।
(5) विद्यालय ( School) – बालकों के नैतिक विकास में परिवार के बाद 'विद्यालय' का भी अति महत्वपूर्ण स्थान है । विद्यालय वह स्थान होता है, जहाँ बालकों के सुन्दर भविष्य का निर्माण होता है। विद्यालय के शिक्षक, सहपाठी, पाठ्यक्रम, विद्यालय का अनुशासन, खेल-क्रियाएँ आदि नैतिकता के विकास में महत्वपूर्ण योगदान देते हैं। विद्यालय के अन्तर्गत निम्न बिन्दुओं पर संक्षिप्त प्रकाश डाला जा रहा है-
(i) शिक्षक (Teacher ) - बालकों के लिए वे शिक्षक आदर्श (Ideals) होते हैं जो समय पर कक्षाओं को लेते हैं। कर्तव्यनिष्ठ एवं ईमानदार होते हैं। बालक अपने शिक्षक की बात जितनी सहजता से आँख मूँदकर मान लेता है उतना वह किसी की बात नहीं मानता। बालक निरंतर शिक्षकों के व्यक्तित्व, ज्ञान, आचरण एवं व्यवहारों से प्रभावित होते रहते हैं। अच्छे शीलगुणों से परिपूरित शिक्षकों को विद्यार्थी बहुत अधिक पसंद करते हैं। और उन्हें अपना आदर्श मानकर उन्हीं की तरह बनना चाहते हैं। इसलिए यह जरूरी है कि विद्यालय में शिक्षक का व्यवहार एवं आचरण अच्छा हो। वे मृदुभाषी एवं बालकों से प्रेम करने वाले हों ताकि बालक उनके चरित्र को अपने जीवन में उतार सकें।
(ii) विद्यालय का पाठ्यक्रम (Syllabus) - बालकों के नैतिक विकास में विद्यालय के पाठ्यक्रम का भी अति महत्वपूर्ण स्थान है। विद्यालय का पाठ्यक्रम ऐसा होना चाहिए जो बालकों को चरित्रवान बनने में सहायक हो। इसलिए वर्तमान में, नैतिक शिक्षा (Moral Education) को भी सम्मिलित किया गया है।
(iii) विद्यालय के साथी (School's Mate ) - विद्यालय में बालक अपने कक्षा के साथियों के साथ ही दूसरे कक्षा के विद्यार्थियों से भी मिलता-जुलता है, उनके साथ रहता है, खेलता है व अन्य कार्य करता है। यदि विद्यालय के साथी अच्छे आचरण करने वाले होते हैं, पढ़ाई में भी अव्वल होते हैं तो बालक में भी इन्हीं गुणों का विकास होता है। इसके विपरीत यदि विद्यालय के साथी घमंडी, स्वार्थी, दुराचारी और आवारा किस्म के हैं तो बालक में भी इन्हीं गुणों का विकास होगा। बालक के चरित्र में गिरावट आती है। बालक दुराचारी प्रवृत्ति का बन जाता है। फलतः उसका भविष्य अंधकारमय हो जाता है।
(iv) विद्यालय का अनुशासन (Discipline in school ) - बालकों के नैतिक विकास में अनुशासन का अति महत्वपूर्ण स्थान है। जिस विद्यालय की व्यवस्था एवं अनुशासन ठीक रहता है, बालकों को स्वच्छ, सुन्दर, मधुरं व स्वस्थ वातावरण मिलता है। वैसे स्कूलों में पढ़कर बालक स्वतः ही अनुशासित हो जाते हैं। परन्तु जिन विद्यालयों में अनुशासन नहीं है अथवा बहुत ही कम है, वहाँ बालक उदंड, उच्छृंखल एवं निर्भीक हो जाते हैं। वे शिक्षक की आज्ञा की अवहेलना करते हैं, क्योंकि उन्हें किसी भी प्रकार का डर-भय नहीं रहता है। वे कई प्रकार के अवांछनीय एवं निंदनीय कार्य कर बैठते हैं। अतः बालकों को अनुशासनहीन विद्यालय में पढ़ने हेतु नहीं भेजना चाहिए।
(6) मनोरंजन (Recreation) - नैतिक मूल्यों के विकास में मनोरंजन की प्रमुख भूमिका है। बालकों को यदि स्वस्थ मनोरंजन की सुविधा प्रदान की जाए तो उनमें नैतिक आचरणों का सुन्दर ढंग से विकास होता है। मनोरंजन के अनेक साधन हैं, जैसे- टी० वी०, रेडियो, सिनेमा, पार्टी में जाना, पुस्तकें पढ़ना, नोवेल पढ़ना, कॉमिक्स पढ़ना आदि। अश्लील एवं गंदे गाने सुनने, गंदे फिल्म देखने, गंदी पुस्तकें पढ़ने से बालकों में अनैतिक आचरणों का विकास होता है। सिनेमा एवं कम्प्यूटर का बालमन पर बहुत अधिक प्रभाव पड़ता है, इसलिए बालकों को मारपीट, लड़ाई-झगड़ा, अनाचार, कामुकता वाली फिल्मों को कभी नहीं दिखाना चाहिए। उन्हें ऐसी फिल्म दिखाना चाहिए जो नैतिक मूल्यों से परिपूरित हो। इसी प्रकार धार्मिक पुस्तकें पढ़ने, महापुरुषों की जीवनियों को पढ़ने से बालकों में नैतिकता का विकास होता है।
(7) साथी समूह (Peer Group ) - बालक के साथी समूह का आचरण जिस तरह का होता है, बालक में भी वैसे ही व्यवहारों, आदर्शों, मूल्यों व आचरणों का विकास होता है। अतः यह अत्यावश्यक है कि बालक के संगी-साथी का आचरण सुन्दर हो । बालक जितना अपने माता-पिता, परिवार के सदस्यों एवं शिक्षकों से सीखते हैं, उससे कहीं अधिक वे अपने संगी-साथियों से सीखते हैं। बालक खेल-खेल में ही सच बोलना, चोरी न करना, बदतमीजी न करना आदि गुणों को सीख जाता है। यदि बालक के साथी चोरी करने वाले, झूठ बोलने वाले, फरेबी, लड़ाई-झगड़ा एवं मारपीट करने वाले, नकबजनी आदि होते हैं तो बालक भी इन अवगुणों को सीख जाता है। अतः स्पष्ट है कि बालक का नैतिक आचरण उसके संगी-साथियों व मित्रों से भी प्रभावित होता है।
(8) पड़ोस (Neighourhood ) - न केवल माता-पिता, संगी-साथी एवं शिक्षकों का आचरण व व्यवहार ही बालक के नैतिक विकास को महत्वपूर्ण ढंग से प्रभावित करते हैं, बल्कि पड़ोसी के नैतिक मूल्यों व व्यवहारों का भी अति महत्वपूर्ण स्थान है। पास-पड़ोस के व्यक्ति का आचरण एवं व्यवहार जिस प्रकार का होता है, बालक में भी इन्हीं गुणों का विकास होता है। यदि पड़ोस में रहने वाले व्यक्ति चरित्रवान नहीं हैं, वे अशिक्षित हैं, झगड़ालू, शराबी, जुआरी व वेश्यागामी हैं तथा सदैव ही अनेतिक आचरणों में लिप्त रहने वाले हैं तो बालक में शनैः-शनैः इन्हीं गुणों का विकास हो जाएगा। अतः बालक भी आगे चलकर अनैतिक आचरण करने वाला ही बन जाता है। इसके ठीक विपरीत यदि पास-पड़ोस के व्यक्ति सभ्य हैं, सुसंस्कृत हैं, शिक्षित हैं, तो निश्चित ही उनमें अच्छे गुणों का विकास होगा।
(9) जनमाध्यम (Mass Media ) - वर्तमान में, किशोरों में जो इतना अधिक व्यभिचार व दुराचार बढ़ा है और वे कामुकता की ओर अग्रसर हुए हैं उनमें जन माध्यमों की भी विशिष्ट भूमिका रही है। आजकल की फिल्म भी अश्लीलता से भरी होती हैं। टी० वी० में भी विभिन्न चैनलों में जो दृश्य या सीरियल दिखाये जाते हैं वे वास्तविक जीवन से काफी दूर, कोरी कल्पना से भरे होते हैं। उनमें भी अश्लीलता एवं फूहड़पन का ही अधिक पुट रहता है। हीरोइनों के तंग वस्त्र होते हैं जिनमें से कामुकता एवं उच्छृंखलता हिलोरें लेते नजर आती हैं। गाने के बोल भी फूहड़ एवं कामुक होते हैं जो अल्प वयस्क किशोरों में कामुकता को बढ़ाने में “आग में घी की तरह" काम करते हैं। फलतः किशोरों में यौन इच्छा की पूर्ति हेतु बलात्कार की भावना प्रबल हो जाती है। इतना ही नहीं, अर्द्धनग्न हीरोइनों के फोटो सार्वजनिक स्थानों एवं दीवारों पर चिपकाये जाते हैं जो किसी भी दृष्टि से बालकों के नैतिक विकास में सहायक नहीं होते हैं। अतः टी० वी० पर ऐसे फिल्म या सीरियल दिखाये जाने चाहिए जिन्हें बालक अपने माता-पिता के साथ बैठकर देख सकें। अतः सीरियल एवं फिल्म शिक्षाप्रद होनी चाहिए जिससे बालकों का नैतिक विकास हो। इसी प्रकार धार्मिक पुस्तकें, वैज्ञानिकों एवं महापुरुषों की जीवनियाँ, जहाँ एक ओर बालकों के चरित्र विकास में सहायक सिद्ध होती हैं, वहीं काल्पनिक कहानियाँ, जासूसी उपन्यास, अश्लील साहित्य किशोर बालक-बालिकाओं को पथ भ्रष्ट कर उन्हें विनाश के गर्त में ढकेल देते हैं।
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